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जीवन परिचय

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मलेरिया संबंधी जो खोज रोनाल्ड रॉस ने की वह कड़ी मेहनत व जूनून की बेमिसाल गाथा है। भारत में जन्मे और तत्कालीन इंडियन मेडिकल सर्विस के अधिकारी डॉ. रोनाल्ड रॉस ने मच्छर की आंत में मलेरिया के रोगाणु का पता लगाकर यह तथ्य स्थापित किया था कि मच्छर मलेरिया का वाहक है और मच्छरों पर काबू पाकर इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है। इस खोज ने इलाज में एक नए युग की शुरुआत की। रॉस को इस खोज के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। सिकंदराबाद की भीषण गर्मी, अत्यधिक उमस और खुद मलेरिया के शिकार होते हुए भी उन्होंने एक हज़ार मच्छरों का डिसेक्शन किया। यह काम कितना कठिन था, जानिये उन्ही के शब्दों में :


डॉ. रोनाल्ड रॉस 



रोनाल्ड रॉस का जन्म 13 मई, 1857 को अल्मोड़ा में हुआ था। देश में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने के सिर्फ तीन दिन बाद। वे अंग्रेजी राज की भारतीय सेना के स्कॉटिश अफसर सर कैम्पबेल रॉस की दस संतानों में सबसे बड़े थे। युवा रोनाल्ड की रूचि कवि या लेखक बनने की थी। उन्हें गणित की समस्याएं हल करने में मजा आता था। तब इंडियन मेडिकल सर्विस के अफसरों को बहुत अच्छी तनख्वाह मिलती थी और तरक्की के बहुत मौके थे, इसलिए उनके पिता उन्हें इंडियन मेडिकल सर्विस का अफसर बनते देखना चाहते थे। इंग्लैंड में स्कूली शिक्षा के बाद पिता के दबाव में उन्होंने लंदन के सेंट बर्थेलोम्यू मेडिकल स्कूल में प्रवेश ले लिया। 

मेडिकल शिक्षा पूरी होने के बाद वे अनिच्छापूर्वक इंडियन मेडिकल सर्विस की प्रवेश परीक्षा में बैठे और नाकाम हुए। पिता के दबाव में अगले साल वे फिर परीक्षा में बैठे और 24 सफल छात्रों में 17 वें क्रम पर आए। आर्मी मेडिकल स्कूल में चार माह के प्रशिक्षण के बाद वें इंडियन मेडिकल सर्विस में दाखिल हो गए और पिता सपना पूरा हुआ। उन्हें कलकत्ता या बॉम्बे के बजाय कम प्रतिष्ठित मद्रास प्रेसिडेंसी में काम करने का मौका मिला। वहां उनका ज्यादातर काम मलेरिया पीड़ित सैनिकों का इलाज करना था। क्विनाइन से रोगी ठीक तो हो जाते, लेकिन मलेरिया इतनी तेजी से फैलता कि कई रोगियों को इलाज नहीं मिल पाता और वे मर जाते। 

भारत में सात साल काम करने के बाद वे 1888 में इंग्लैंड लौट गए। हालांकि, वहां उन्होंने पाया कि उनके साहित्य के पाठक परिजनों व मित्रों से आगे नहीं बढ़ रहे है। उनकी आंखे खुली और उन्होंने लंदन में 'पब्लिक हेल्थ' में डिप्लोमा कर लिया। अब वे प्रयोगशाला की तकनीकों और माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल करने में माहिर हो गए थे। आखिर वे 1889 में फिर भारत लौटे और बैंगलोर के छोटे से सैन्य अस्पताल में काम करने लगे। अब वे मलेरिया पर थ्योरी बनाने में लग गए। बुखार का कोई भी रोगी आता तो वे उसकी उंगली में सुई चुभोकर खून का नमूना लेते और घंटों माइक्रोस्कोप के नीचे रखकर अध्ययन करते। 1894 में वे लंदन आएं तो तब के ख्यात डॉक्टर पेट्रिक मैन्सन से मिले तो उन्होंने रॉस से कहा, 'मुझे लगता है कि मच्छर मलेरिया के रोगाणु फैलाते है'। इन शब्दों ने रॉस के जीवन को बदल दिया।

जहाज से भारत लौटते समय वे यात्रियों व चालक दल के सदस्यों को सुई चुभोकर रक्त के नमूने लेते और उसकी जांच करते। जहाज जिस भी बंदरगाह पर रुकता, वे उस शहर के अस्पताल से मलेरिया के रोगियों के रक्त के नमूने मांगते। अपने सैन्य अस्पताल में पहुंचकर तो उन पर काम का जूनून सवार हो गया। रोगी उन्हें देखते ही भागने लगते, क्योंकि वे बार-बार सुई चुभोने से परेशान हो गए थे। साथी डॉक्टर उन्हें मलेरिया के मामलों से दूर ही रखते। एक सुई चुभोने का वे 1 रुपया देने लगे, जो उस जमाने में बहुत बड़ी रकम थी। वे मच्छर पकड़ते। रोगियों को मच्छरदानी में सुलाकर मच्छर छोड़ देते ताकि उनके काटने से उन्हें अध्ययन का मौका मिले। सैकड़ो मच्छरों का डिसेक्शन कर लिया पर कोई परिणाम नहीं। वे निराश होकर रिसर्च छोड़ने पर उतारू हो गए। मैन्सन ने पत्र लिखकर उन्हें काम जारी रखने को प्रेरित किया। 

फिर रॉस ने मच्छरों को अब्दुल कादिर नाम के रोगी को काटने दिया। इन मच्छरों को पानी से भरी बोतल में तक बंद रखा जब तक वे मर न गए और फिर बहुत बड़ी रकम देने का वादा कर अपने नौकर व दो अन्य को वह पानी पीने को कहा। उनके नौकर को बुखार आया पर वह तीन दिन में ठीक हो गया। खून में मलेरिया का रोगाणु भी नहीं मिला। वे इतने हताश हो गए कि फिर कविताएं लिखने लगे। 1897 में वे ऊटी के नजदीक सिंगुर घाट गए। वहां उन्हें मलेरिया हो गया। वहां कमरे में पड़े-पड़े उन्हें दीवार पर अजीब-सा मच्छर दिखा, जिसे उन्होंने चितकबरे पंखों वाला मच्छर कहा। अचानक उन्हें लगा कि वे मच्छर की गलत प्रजाति पर प्रयोग कर रहे है। वे जून 1897 में सिकंदराबाद लौटे और उन्हें हैजा हो गया। ठीक हुए तो उन्होंने मच्छर की विभिन्न प्रजातियों का अध्ययन शुरू किया। उनका नौकर बोतल में मच्छर पकड़-पकड़कर लाता और वे डिसेक्शन करते। हर कोशिका का परिक्षण करते।

रॉस ने लिखा है, 'अगस्त में मौसम बहुत गर्म था। शुरू में तो मैं बड़े मजे से काम करता पर नाकामी के बाद नाकामी देखकर मैं हताश हो चला था। माइक्रोस्कोप में आंखें गड़ाने से वे इतनी थक जाती कि भरी दोपहर में घर लौटते वक्त मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। उस दिन बेगमपेट के उस अस्पताल के मेरे ऑफिस में बादलों से ढंके आसमान से हल्की सी रोशनी आ रही थी। पसीना बह रहा था पर नौकर को पंखा करने को नहीं कह सकता था, माइक्रोस्कोप के नीचे रखे मच्छर हवा से उड़ जाते। उनके भाई-बंधु चारों तरफ से मुझे काट रहे थे। महीनों से पसीना गिरने से माइक्रोस्कोप के स्क्रू में जंग लग गया था। इसका आखिरी आई-पीस क्रेक हो गया था। 15 अगस्त को मेरा नौकर जो बोतल लेकर आया उसमें चितकबरे पंखों वाले कई मच्छर थे। मेरी तो बांछे खिल गई। मलेरिया के रोगी हुसैन खान को 1 आना देकर मच्छरों से कटवाया गया। उसे कुल दस आने दिए गए। 17 अगस्त को मैंने दो मच्छरों का डिसेक्शन किया। कुछ नहीं मिला। 19 अगस्त को मैंने एक मच्छर का डिसेक्शन किया तो उसमें 10 माइक्रॉन की कोशिका थी, जिसमें कुछ रचनाएं थीं पर कुछ स्पष्ट नहीं हुआ। 20 अगस्त को मैं सुबह 7 बजे ही अस्पताल पहुंच गया। रोगियों को देखा। जरुरी पत्र देखें। जल्दी-जल्दी नाश्ता किया। हुसैन खान से मिले अब दो ही मच्छर बचे थे।

दोपहर बाद 1 बजे मैंने मच्छर का डिसेक्शन शुरू किया। माइक्रॉन बाय माइक्रॉन कोशिकाओं का अध्ययन चल रहा था। अचानक पेट की दीवार पर एक 12 माइक्रॉन की एकदम गोल रचना नजर आई। थोड़ा आगे देखा तो एक और ऐसी रचना थी। फोकस बदला तो हर रचना में कुछ काला दानेदार-सा भरा पाया। चाय पीकर सो गया। उठा तो विचार आया कि यदि कोशिका में मलेरिया के रोगाणु है तो सुबह उन्हें फुल जाना चाहिए।

रात बेचैनी में गुजरी। सुबह आखरी मच्छर का डिसेक्शन किया और उसमें पेट की कोशिकाएं फूली हुई थी। ये मलेरिया के रोगाणु थे। 20 अगस्त का दिन इसीलिए मलेरिया दिवस के रूप में मनाते है। 4 सितंबर को वे बैंगलोर में परिवार के पास लौटे और अपना पेपर लिखा, जो 18 दिसंबर 1897 को ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ।

रॉस की 1889 में रोजा बेसी ब्लॉसम से शादी हुई। उनकी दो बेटियां, डोरोथी (1891-1947) और सिल्विया (1893-1925), तथा दो ​​बेटें, रोनाल्ड कैम्पबेल (1895-1914) और चार्ल्स क्लेय (1901-1966) हुए। पत्नी की 1931 में मृत्यु हो गई।रोनाल्ड 26 अगस्त 1914 को ले कैटयु की लड़ाई में मारा गया। रॉस की एक लंबी बीमारी और अस्थमा के दौरे के बाद 16 दिसंबर 1932 को 75 वर्ष की उम्र में उनके स्वयं के नाम के अस्पताल रॉस इंस्टिट्यूट, लंदन में निधन हो गया। उन्हें पटनी घाटी कब्रिस्तान में उनकी पत्नी के बगल में दफनाया गया।

रोनाल्ड रॉस को मलेरिया पर अपने कार्य के लिए 1902 में शरीर क्रिया विज्ञान या चिकित्सा के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके आलावा भी उन्हें अनेकों सम्मान प्राप्त हुए है। 1901 में वे रॉयल कॉलेज ऑफ़ सर्जन तथा रॉयल सोसाइटी के फैलो निर्वाचित हुए थे, जिसमें वे 1911 से लेकर 1913 तक उपाध्यक्ष बने। 1902 में सम्राट एडवर्ड सप्तम द्वारा बाथ के मोस्ट ऑनरेबल ऑर्डर नियुक्त किए गए। लुधियाना में, क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज ने "रॉस हॉस्टल 'के रूप में अपने छात्रावास को नाम दिया है, वहां के युवा डॉक्टर अक्सर "रॉसीयन" के रूप में खुद को देखते है। रोनाल्ड रॉस की स्मृति में 'सर रोनाल्ड रॉस इंस्टिट्यूट ऑफ़ पैरासीटोलॉजी' की स्थापना उस्मानिया विश्वविद्यालय अंतर्गत हैदराबाद में हुई थी।


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